नज़र से हद्द-ए-नज़र तक तमाम तारीकी
ये एहतिमाम है इक वा'दा-ए-सहर के लिए
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ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
न पूछ क्यूँ मिरी आँखों में आ गए आँसू
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
दिल में इक शोर सा उठा था कभी
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
अब यही मेरे मशाग़िल रह गए