कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
वो मुझ को याद कभी इस क़दर नहीं आए
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बे-चारगी-ए-हसरत-ए-दीदार देखना
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के