जब कभी हम ने किया इश्क़ पशेमान हुए
ज़िंदगी है तो अभी और पशेमाँ होंगे
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कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
मन-ओ-तू का हिजाब उठने न दे ऐ जान-ए-यकताई
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए
ये तमीज़-ए-इश्क़-ओ-हवस नहीं है हक़ीक़तों से गुरेज़ है
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
दिल से आती है बात लब पे 'हफ़ीज़'
कहीं ये तर्क-ए-मोहब्बत की इब्तिदा तो नहीं
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई