हम को मंज़िल ने भी गुमराह किया
रास्ते निकले कई मंज़िल से
Faiz Ahmad Faiz
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दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
दिल से आती है बात लब पे 'हफ़ीज़'
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
तिरे जाते ही ये आलम है जैसे
मन-ओ-तू का हिजाब उठने न दे ऐ जान-ए-यकताई
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के