ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
बिल-आख़िर ग़म-ए-इश्क़ से जा मिले
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ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
फिर से आराइश-ए-हस्ती के जो सामाँ होंगे
राज़-ए-सर-बस्ता मोहब्बत के ज़बाँ तक पहुँचे
आज की रात
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
तमाम उम्र तिरा इंतिज़ार हम ने किया
आज उन्हें कुछ इस तरह जी खोल कर देखा किए