ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
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कि बढ़ चले हैं अब इन गेसुओं के भी साए
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