अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तिरी फ़ुर्क़त के सदमे कम न होंगे
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इक उम्र से हम तुम आश्ना हैं
तमाम उम्र किया हम ने इंतिज़ार-ए-बहार
ग़म-ए-ज़िंदगानी के सब सिलसिले
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
कुछ इस तरह से नज़र से गुज़र गया कोई
मन-ओ-तू का हिजाब उठने न दे ऐ जान-ए-यकताई
ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के
कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए
दोस्ती आम है लेकिन ऐ दोस्त
अब कोई आरज़ू नहीं शौक़-ए-पयाम के सिवा