अब यही मेरे मशाग़िल रह गए
सोचना और जानिब-ए-दर देखना
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गर उस का सिलसिला भी उम्र-ए-जावेदाँ से मिले
नर्गिस पे तो इल्ज़ाम लगा बे-बसरी का
तिरी तलाश है या तुझ से इज्तिनाब है ये
दिल से आती है बात लब पे 'हफ़ीज़'
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
ये दिलकशी कहाँ मिरी शाम-ओ-सहर में थी
ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं
दुनिया में हैं काम बहुत
तिरी तलाश में जब हम कभी निकलते हैं
ऐसी भी क्या जल्दी प्यारे जाने मिलें फिर या न मिलें हम
हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई
फिर से आराइश-ए-हस्ती के जो सामाँ होंगे