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कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए - हफ़ीज़ होशियारपुरी कविता - Darsaal

कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए

कहाँ कहाँ न तसव्वुर ने दाम फैलाए

हुदूद-ए-शाम-ओ-सहर से निकल के देख आए

नहीं पयाम रह-ए-नामा-ओ-पयाम तू है

अभी सबा से कहो उन के दिल को बहलाए

ग़ुरूर-ए-जादा-शनासी बजा सही लेकिन

सुराग़-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद भी कोई पाए

ख़ुदा वो दिन न दिखाए कि राहबर ये कहे

चले थे जाने कहाँ से कहाँ निकल आए

गुज़र गया कोई दरमाँदा-राह ये कहता

अब इस फ़ज़ा में कोई क़ाफ़िले न ठहराए

न जाने उन के मुक़द्दर में क्यूँ है तीरा-शबी

वो हम-नवा जो सहर को क़रीब-तर लाए

कोई फ़रेब-ए-नज़र है कि ताबनाक फ़ज़ा

किसे ख़बर कि यहाँ कितने चाँद गहनाए

ग़म-ए-ज़माना तिरी ज़ुल्मतें ही क्या कम थीं

कि बढ़ चले हैं अब उन गेसुओं के भी साए

बहुत बुलंद है इस से मिरा मक़ाम-ए-ग़ज़ल

अगरचे मैं ने मोहब्बत के गीत भी गाए

'हफ़ीज़' अपना मुक़द्दर 'हफ़ीज़' अपना नसीब

गिरे थे फूल मगर हम ने ज़ख़्म ही खाए

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