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हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई - हफ़ीज़ होशियारपुरी कविता - Darsaal

हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई

हर क़दम पर हम समझते थे कि मंज़िल आ गई

हर क़दम पर इक नई दरपेश मुश्किल आ गई

या ख़ला पर हुक्मराँ या ख़ाक के अंदर निहाँ

ज़िंदगी डट कर अनासिर के मुक़ाबिल आ गई

बढ़ रहा है दम-ब-दम सुब्ह-ए-हक़ीक़त का यक़ीं

हर नफ़स पर ये गुमाँ होता है मंज़िल आ गई

टूटते जाते हैं रिश्ते जोड़ता जाता हूँ मैं

एक मुश्किल कम हुई और एक मुश्किल आ गई

हाल-ए-दिल है कोई ख़्वाब-आवर फ़साना तो नहीं

नींद अभी से तुम को ऐ यारान-ए-महफ़िल आ गई

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