ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के

ग़म-ए-आफ़ाक़ है रुस्वा ग़म-ए-दिल-बर बन के

तोहमत-ए-इश्क़ लगी हम पे सुख़न-वर बन के

वो नहीं मौत सही मौत नहीं नींद सही

कोई आ जाए शब-ए-ग़म का मुक़द्दर बन के

राहबर तुम को बनाया हमें मालूम न था

राह-रौ राह भटक जाते हैं रहबर बन के

इस ज़ियाँ-ख़ाने में इक क़तरे पे क्या क्या गुज़री

कभी आँसू कभी शबनम कभी गौहर बन के

मौत की नींद के मातों पे न क्यूँ रश्क आए

जागना है उन्हें हंगामा-ए-मशहर बन के

याद फिर आ गईं भूली हुई बातें क्या क्या

फिर मुलाक़ात हुई ऐसे मुक़द्दर बन के

आह ये उक़्दा-ए-ग़म बज़्म-ए-तरब में भी 'हफ़ीज़'

बार-हा आँख छलक जाती है साग़र बन के

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