ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को
हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ़्तर है
Rahat Indori
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वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए
क़दम शबाब में अक्सर बहकने लगता है
हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
जो नज़र से बयान होती है
मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
किसी का घर जले अपना ही घर लगे है मुझे
हमारे अहद का मंज़र अजीब मंज़र है
कोई बतलाए कि ये तुर्फ़ा तमाशा क्यूँ है
लहू की मय बनाई दिल का पैमाना बना डाला