उस दुश्मन-ए-वफ़ा को दुआ दे रहा हूँ मैं
मेरा न हो सका वो किसी का तो हो गया
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ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं
मुद्दत की तिश्नगी का इनआ'म चाहता हूँ
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें
चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है
क़दम शबाब में अक्सर बहकने लगता है
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया