समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है
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क्या जुर्म हमारा है बता क्यूँ नहीं देते
गुमशुदगी ही अस्ल में यारो राह-नुमाई करती है
आसान नहीं मरहला-ए-तर्क-ए-वफ़ा भी
हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
हमारे अहद का मंज़र अजीब मंज़र है
कभी ख़िरद कभी दीवानगी ने लूट लिया
मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने 'हफ़ीज़'
मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
किसी का घर जले अपना ही घर लगे है मुझे
वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में
इश्क़ में हर नफ़स इबादत है
सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या