मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
मिरा क़िस्सा निहायत मुख़्तसर है
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कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
वो तो बैठे रहे सर झुकाए हुए
आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें
वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में
कभी ख़िरद कभी दीवानगी ने लूट लिया
चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है
हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
मुद्दत की तिश्नगी का इनआ'म चाहता हूँ
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है