कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है
दुनिया है तिरी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर नहीं है
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सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
हदीस-ए-तल्ख़ी-ए-अय्याम से तकलीफ़ होती है
वो बात 'हफ़ीज़' अब नहीं मिलती किसी शय में
जो नज़र से बयान होती है
इक शगुफ़्ता गुलाब जैसा था
ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं
इश्क़ में हर नफ़स इबादत है
लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
ख़फ़ा है गर ये ख़ुदाई तो फ़िक्र ही क्या है
कुछ सोच के परवाना महफ़िल में जला होगा
कोई बतलाए कि ये तुर्फ़ा तमाशा क्यूँ है