इश्क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
चोट लगती है कहीं दर्द कहीं होता है
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एक सीता की रिफ़ाक़त है तो सब कुछ पास है
मिले फ़ुर्सत तो सुन लेना किसी दिन
हर हक़ीक़त है एक हुस्न 'हफ़ीज़'
मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने 'हफ़ीज़'
चले चलिए कि चलना ही दलील-ए-कामरानी है
कोई बतलाए कि ये तुर्फ़ा तमाशा क्यूँ है
कुछ सोच के परवाना महफ़िल में जला होगा
जो ख़त है शिकस्ता है जो अक्स है टूटा है
हमारे अहद का मंज़र अजीब मंज़र है
दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए
जब भी तिरी यादों की चलने लगी पुर्वाई
कुछ इस के सँवर जाने की तदबीर नहीं है