हिसार-ए-ज़ात के दीवार-ओ-दर में क़ैद रहे
तमाम उम्र हम अपने ही घर में क़ैद रहे
Gulzar
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भागते सायों के पीछे ता-ब-कै दौड़ा करें
तदबीर के दस्त-ए-रंगीं से तक़दीर दरख़्शाँ होती है
फूल अफ़्सुर्दा बुलबुलें ख़ामोश
ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया
इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है
किस मुँह से करें उन के तग़ाफ़ुल की शिकायत
पैग़ाम ईद
मुद्दत की तिश्नगी का इनआ'म चाहता हूँ
जो पर्दों में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
मैं ने आबाद किए कितने ही वीराने 'हफ़ीज़'
तेज़ जब ख़ंजर-ए-बेदाद किया जाएगा
वफ़ा नज़र नहीं आती कहीं ज़माने में