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ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है

ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है

ख़ुद बाद-ए-बहारी भी शरर-बार चली है

देखी ही न थी जिस ने शिकस्त आज तक अपनी

वो चश्म-ए-फ़ुसूँ-ख़ेज़ भी दिल हार चली है

अब कोई हदीस-ए-क़द-ओ-गेसू नहीं सुनता

दुनिया में वो रस्म-ए-रसन-ओ-दार चली है

तकता ही नहीं कोई मय ओ जाम की जानिब

क्या चाल ये तू ने निगह-ए-यार चली है

वो लोग कहाँ जाएँ जो काफ़िर हैं न दीं-दार

फिर कशमकश-ए-काफ़िर-ओ-दीन-दार चली है

बात और भी कुछ मय की मज़म्मत के अलावा

ये बात तो ऐ शैख़ कई बार चली है

दीवानगी-ए-शौक़ में जो कर गए हम लोग

मेयार-ए-ख़िरद बन के वो गुफ़्तार चली है

साज़िश न हो कुछ दैर ओ हरम वालों की इस में

सुनता हूँ कि मय-ख़ाने में तलवार चली है

कब याद किया हम को 'हफ़ीज़' अहल-ए-चमन ने

जब ज़ीस्त सू-ए-वादी-ए-पुर-ख़ार चली है

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