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ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं

ये और बात कि लहजा उदास रखते हैं

ख़िज़ाँ के गीत भी अपनी मिठास रखते हैं

कहें तो क्या कहें हम उन की सादा-लौही को

जो क़ातिलों से तरह्हुम की आस रखते हैं

किसी के सामने फैलाईं किस लिए दामन

तुम्हारे दर्द की दौलत जो पास रखते हैं

उन्हें हयात की तोहमत न दो अबस यारो

जो अपना जिस्म न अपना लिबास रखते हैं

क़रीब-ए-गुल-बदनाँ रह चुके हैं दीवाने

ये ख़ार वो हैं जो फूलों की बास रखते हैं

कहाँ भिगोए कोई अपने ख़ुश्क होंटों को

ये दौर वो है कि दरिया भी प्यास रखते हैं

ख़ुदा का शुक्र अदा कीजे ख़ुश-नसीबी पर

'हफ़ीज़' आप दिल-ए-ग़म-शनास रखते हैं

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