लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है

लब-ए-फ़ुरात वही तिश्नगी का मंज़र है

वही हुसैन वही क़ातिलों का लश्कर है

ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को

हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ़्तर है

यक़ीन किस पे करें किस को दोस्त ठहराएँ

हर आस्तीन में पोशीदा कोई ख़ंजर है

गिला नहीं मिरे होंटों पे तंग-दस्ती का

ख़ुदा का शुक्र मिरा दिल अभी तवंगर है

कोई तो है जो धड़कता है ज़िंदगी बन कर

कोई तो है जो हमारे दिलों के अंदर है

उसे क़रीब से देखा तो ये हुआ मालूम

वो बू-ए-गुल नहीं शमशीर-ए-बाद-ए-सरसर है

समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम

हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है

मिरी जबीं को हक़ारत से देखने वाले

मिरी जबीं से तिरा आस्ताँ मुनव्वर है

तुम्हारे क़ुर्ब की लज़्ज़त नसीब है जिस को

वो एक लम्हा हयात-ए-अबद से बेहतर है

हमारा जुर्म यही है कि हक़-परस्त हैं हम

हमारे ख़ून का प्यासा हर एक ख़ंजर है

वो मेरे सामने आए तो किस तरह आए

कोई लिबास है उस का न कोई पैकर है

हर इक बला से बचाए हुए है जो हम को

हमारे सर पे ये माँ की दुआ की चादर है

भटक रहा हूँ मैं सदियों से दश्त-ए-ग़ुर्बत में

कोई तो मुझ को बताए कहाँ मिरा घर है

अभी 'हफ़ीज़' गुलाबों की बात मत कीजे

लहूलुहान अभी गुलसिताँ का मंज़र है

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