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जो नज़र से बयान होती है - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

जो नज़र से बयान होती है

जो नज़र से बयान होती है

क्या हसीं दास्तान होती है

पत्थरों को न ठोकरें मारो

पत्थरों में भी जान होती है

जिस को छू दो तुम अपने क़दमों से

वो ज़मीं आसमान होती है

बे-पिए भी सुरूर होता है

जब मोहब्बत जवान होती है

ज़िंदगी तो उसी की है जिस पर

वो नज़र मेहरबान होती है

जितने ऊँचे ख़याल होते हैं

उतनी ऊँची उड़ान होती है

आरज़ू की ज़बाँ नहीं होती

आरज़ू बे-ज़बान होती है

जिस में शामिल हो तल्ख़ी-ए-ग़म भी

कितनी मीठी वो तान होती है

इन की नज़रों का हो फ़ुसूँ जिस में

वो ग़ज़ल की ज़बान होती है

ख़ार की ज़िंदगी-ए-बे-रौनक़

फूल की पासबान होती है

कौन देता है रूह को आवाज़

जब हरम में अज़ान होती है

इश्क़ की ज़िंदगी 'हफ़ीज़' न पूछ

हर घड़ी इम्तिहान होती है

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