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जो ख़त है शिकस्ता है जो अक्स है टूटा है - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

जो ख़त है शिकस्ता है जो अक्स है टूटा है

जो ख़त है शिकस्ता है जो अक्स है टूटा है

या हुस्न तिरा झूटा या आइना झूटा है

हम शुक्र करें किस का शाकी हों तो किस के हूँ

रहज़न ने भी लूटा है रहबर ने भी लूटा है

याद आया इन आँखों का पैमान-ए-वफ़ा जब भी

साग़र मिरे हाथों से बे-साख़्ता छूटा है

हर चेहरे पे लिक्खा है इक क़िस्सा-ए-मज़लूमी

बेदर्द ज़माने ने हर शख़्स को लूटा है

मंज़िल की तमन्ना में सर-गर्म-ए-सफ़र हैं सब

कौन उस के लिए रोए जो राह में छूटा है

अल्लाह रे 'हफ़ीज़' उस का ये ज़ौक़-ए-ख़ुद-आराई

जब ज़ुल्फ़ सँवारी है इक आइना टूटा है

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