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जब भी तिरी यादों की चलने लगी पुर्वाई - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

जब भी तिरी यादों की चलने लगी पुर्वाई

जब भी तिरी यादों की चलने लगी पुर्वाई

हर ज़ख़्म हुआ ताज़ा हर चोट उभर आई

इस बात पे हैराँ हैं साहिल के तमाशाई

इक टूटी हुई कश्ती हर मौज से टकराई

मयख़ाने तक आ पहुँची इंसाफ़ की रुस्वाई

साक़ी से हुई लग़्ज़िश रिंदों ने सज़ा पाई

हंगामा हुआ बरपा इक जाम अगर टूटा

दिल टूट गए लाखों आवाज़ नहीं आई

इक रात बसर कर लें आराम से दीवाने

ऐसा भी कोई वा'दा ऐ जान-ए-शकेबाई

किस दर्जा सितम-गर है ये गर्दिश-ए-दौराँ भी

ख़ुद आज तमाशा हैं कल थे जो तमाशाई

क्या जानिए क्या ग़म था मिल कर भी ये आलम था

बे-ख़्वाब रहे वो भी हम को भी न नींद आई

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