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आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें - हफ़ीज़ बनारसी कविता - Darsaal

आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें

आ जाओ कि मिल कर हम जीने की बिना डालें

ये बार-ए-हयात ऐ दोस्त उठने का नहीं तन्हा

दुनिया पे मुसल्लत है औहाम की तारीकी

हम हैं कि जलाए हैं इक शम-ए-यक़ीं तन्हा

मुहताज-ए-तवज्जोह हैं कुछ और मसाइल भी

क्यूँ ज़ेहन में फिरती है इक नान-ए-जवीं तन्हा

हर मुर्ग़-ए-ख़ुश-अलहाँ अब पर्वाज़ पे माइल है

गुलशन में न रह जाए सय्याद कहीं तन्हा

सज्दे दर-ए-जानाँ पर लाखों ने किए लेकिन

मे'आर-ए-वफ़ा ठहरी मेरी ही जबीं तन्हा

इक हुस्न-ए-तसव्वुर है जो ज़ीस्त का साथी है

वो कोई भी मंज़िल हो हम लोग नहीं तन्हा

नज़दीक 'हफ़ीज़' इस के रिंद आएँ तो क्या आएँ

जागीर है ज़ाहिद की सरमाया-ए-दीं तन्हा

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