उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
ज़िंदगी भर का गिला जाता रहा
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अब वो पीरी में कहाँ अहद-ए-जवानी की उमंग
देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
अश्क-ए-ग़म उक़्दा-कुशा-ए-ख़लिश-ए-जाँ निकला
महव-ए-कमाल-ए-आरज़ू मुझ को बना के भूल जा
ज़बाँ पे हर्फ़-ए-शिकायत अरे मआज़-अल्लाह
उठने को तो उठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
लुत्फ़-ए-जफ़ा इसी में है याद-ए-जफ़ा न आए फिर
ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं
बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी न पूछ
हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
वो पूछते हैं दिल-ए-मुब्तला का हाल और हम