हर मुसीबत थी मुझे ताज़ा पयाम-ए-आफ़ियत
मुश्किलें जितनी बढ़ीं उतनी ही आसाँ हो गईं
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तुम्हें भी मालूम हो हक़ीक़त कुछ अपनी रंगीं-अदाइयों की
लुत्फ़-ए-जफ़ा इसी में है याद-ए-जफ़ा न आए फिर
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़
खोया हुआ सा रहता हूँ अक्सर मैं इश्क़ में
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
हज़ार ख़ाक के ज़र्रों में मिल गया हूँ मैं
बेदर्द मुझ से शरह-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी न पूछ
उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
तू है बहार तो दामन मिरा हो क्यूँ ख़ाली
ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का