ग़ज़ब है ये एहसास वारस्तगी का
कि तुझ से भी ख़ुद को बरी चाहता हूँ
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देख कर शम्अ के आग़ोश में परवाने को
उस ने इस अंदाज़ से देखा मुझे
लुत्फ़-ए-जफ़ा इसी में है याद-ए-जफ़ा न आए फिर
महव-ए-कमाल-ए-आरज़ू मुझ को बना के भूल जा
वो निगाहें जो दिल-ए-महज़ूँ में पिन्हाँ हो गईं
तुम्हें भी मालूम हो हक़ीक़त कुछ अपनी रंगीं-अदाइयों की
दर्द सा उठ के न रह जाए कहीं दिल के क़रीब
उठने को तो उट्ठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
उठने को तो उठा हूँ महफ़िल से तिरी लेकिन
अब क्यूँ गिला रहेगा मुझे हिज्र-ए-यार का
तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़