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तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़ - हादी मछलीशहरी कविता - Darsaal

तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़

तुम अज़ीज़ और तुम्हारा ग़म भी अज़ीज़

किस से किस का गिला करे कोई

माने-ए-अर्ज़ मुझ को पास-ए-वफ़ा

उन को ज़िद इल्तिजा करे कोई

तुम तग़ाफ़ुल-शिआर दिल मायूस

आह क्या हौसला करे कोई

ग़म-ए-दिल अब किसी के बस का नहीं

क्या दवा क्या दुआ करे कोई

कौन सुनता है ग़म-नसीबों की

किस के दर पर सदा करे कोई

ख़ैर सुन लो मिरा फ़साना-ए-ग़म

ये तो कह दोगे क्या करे कोई

सख़्त मुश्किल है शरह-ए-दर्द-ए-निहाँ

किस तरह इब्तिदा करे कोई

जिस को देखो वो है वफ़ा-दुश्मन

किस से अहद-ए-वफ़ा करे कोई

ख़त्म जौर-ओ-जफ़ा है मर्ग-ए-वफ़ा

काश फिर इब्तिदा करे कोई

लुत्फ़-ए-ताज़ीर जब हो जान-ए-हयात

क्यूँ न 'हादी' ख़ता करे कोई

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