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जवाँ आग - हबीब जालिब कविता - Darsaal

जवाँ आग

गोलियों से ये जवाँ आग न बुझ पाएगी

गैस फेंकोगे तो कुछ और भी लहराएगी

ये जवाँ आग जो हर शहर में जाग उट्ठी है

तीरगी देख के इस आग को भाग उट्ठी है

कब तलक इस से बचाओगे तुम अपने दामाँ

ये जवाँ आग जला देगी तुम्हारे ऐवाँ

ये जवाँ ख़ून बहाया है जो तुम ने अक्सर

ये जवाँ ख़ून निकल आया है बन के लश्कर

ये जवाँ ख़ून सियह-रात का रहने देगा

दुख में डूबे हुए हालात न रहने देगा

ये जवाँ ख़ून है महलों पे लपकता तूफ़ाँ

उस की यलग़ार से हर अहल-ए-सितम है लर्ज़ां

ये जवाँ फ़िक्र तुम्हें ख़ून न पीने देगी

ग़ासिबो अब न तुम्हें चैन से जीने देगी

क़ातिलो राह से हट जाओ कि हम आते हैं

अपने हाथों में लिए सुर्ख़ अलम आते हैं

तोड़ देगी ये जवाँ फ़िक्र हिसार-ए-ज़िन्दाँ

जाग उट्ठे हैं मिरे देस के बेकस इंसाँ

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