ज़ुल्फ़ की बात किए जाते हैं
दिन को यूँ रात किए जाते हैं
चंद आँसू हैं इन्हें भी 'जालिब'
नज़र-ए-हालात किए जाते हैं
Allama Iqbal
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मौलाना
'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं
मल्का-ए-तरन्नुम नूर-ए-जहाँ की नज़्र
एक याद
ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या
कितना सुकूत है रसन-ओ-दार की तरफ़
सब्ज़ा-ज़ारों में गुज़र था अपना
सहाफ़ी से
इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार 'मुसहफ़ी'
बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू
ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
हम ने दिल से तुझे सदा माना