सब्ज़ा-ज़ारों में गुज़र था अपना
मस्त ओ शादाब नगर था अपना
जब उठाता है कोई महफ़िल से
याद आता है कि घर था अपना
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Rahat Indori
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Habib Jalib
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आने वाली बरखा देखें क्या दिखलाए आँखों को
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
तेरे होने से
कुछ लोग ख़यालों से चले जाएँ तो सोएँ
इक उम्र सुनाएँ तो हिकायत न हो पूरी
अहद-ए-सज़ा
कूचा-ए-सुब्ह में जा पहुँचे हम
जवाँ आग
बटे रहोगे तो अपना यूँही बहेगा लहू
मुलाक़ात
छोड़ इस बात को ऐ दोस्त कि तुझ से पहले
इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे