अभी ऐ दोस्त ज़ौक़-ए-शाएरी है वज्ह रुस्वाई
तिरी बस्ती में हम पर और भी इल्ज़ाम आएँगे
अगर अब भी हमारा साथ तू ऐ दिल नहीं देगा
तो हम इस शहर में तुझ को अकेला छोड़ जाएँगे
Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
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जब कोई कली सेहन-ए-गुलिस्ताँ में खिली है
यौम-ए-मई
मौलाना
बातें तो कुछ ऐसी हैं कि ख़ुद से भी न की जाएँ
दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं
उन के आने के बाद भी 'जालिब'
कूचा-ए-सुब्ह में जा पहुँचे हम
तेरी आँखों का अजब तुर्फ़ा समाँ देखा है
आने वाली बरखा देखें क्या दिखलाए आँखों को
दयार-ए-'दाग़'-ओ-'बेख़ुद' शहर-ए-देहली छोड़ कर तुझ को
हम आवारा गाँव गाँव बस्ती बस्ती फिरने वाले
मुद्दतें हो गईं ख़ता करते