तुम्हें तो नाज़ बहुत दोस्तों पे था 'जालिब'
अलग-थलग से हो क्या बात हो गई प्यारे
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ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
दिल-ए-पुर-शौक़ को पहलू में दबाए रक्खा
हम ने सुना था सहन-ए-चमन में कैफ़ के बादल छाए हैं
मुशीर
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' बने 'यगाना' बने
आग है फैली हुई काली घटाओं की जगह
ग़ज़लें तो कही हैं कुछ हम ने उन से न कहा अहवाल तो क्या
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं
औरत
उस सितमगर की हक़ीक़त हम पे ज़ाहिर हो गई
मल्का-ए-तरन्नुम नूर-ए-जहाँ की नज़्र
दिल वालो क्यूँ दिल सी दौलत यूँ बे-कार लुटाते हो