पा सकेंगे न उम्र भर जिस को
जुस्तुजू आज भी उसी की है
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कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़
क्या क्या लोग गुज़र जाते हैं रंग-बिरंगी कारों में
इस शहर-ए-ख़राबी में ग़म-ए-इश्क़ के मारे
शे'र होता है अब महीनों में
दुनिया तो चाहती है यूँही फ़ासले रहें
मावरा-ए-जहाँ से आए हैं
लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी
अभी ऐ दोस्त ज़ौक़-ए-शाएरी है वज्ह-ए-रुस्वाई
यौम-ए-मई
घर के ज़िंदाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी
'नूर-जहाँ'
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था