इक उम्र सुनाएँ तो हिकायत न हो पूरी
दो रोज़ में हम पर जो यहाँ बीत गई है
Allama Iqbal
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कैसे कहें कि याद-ए-यार रात जा चुकी बहुत
तू रंग है ग़ुबार हैं तेरी गली के लोग
'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं
ज़ाबता
भुला भी दे उसे जो बात हो गई प्यारे
मुशीर
ये और बात तेरी गली में न आएँ हम
यूँ वो ज़ुल्मत से रहा दस्त-ओ-गरेबाँ यारो
दस्तूर
ये उजड़े बाग़ वीराने पुराने
मता-ए-ग़ैर