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यौम-ए-मई - हबीब जालिब कविता - Darsaal

यौम-ए-मई

सदा आ रही है मरे दिल से पैहम

कि होगा हर इक दुश्मन-ए-जाँ का सर ख़म

नहीं है निज़ाम-ए-हलाकत में कुछ दम

ज़रूरत है इंसान की अम्न-ए-आलम

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम

सदा आ रही है मिरे दिल से पैहम

न ज़िल्लत के साए में बच्चे पलेंगे

न हाथ अपने क़िस्मत के हाथों मलेंगे

मुसावात के दीप घर घर जलेंगे

सब अहल-ए-वतन सर उठा के चलेंगे

न होगी कभी ज़िंदगी वक़्फ़-ए-मातम

फ़ज़ाओं में लहराएगा सुर्ख़ परचम

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