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लायल-पूर - हबीब जालिब कविता - Darsaal

लायल-पूर

लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

धड़कन धड़कन साथ रहेगी उस बस्ती की याद

मीठे बोलों की वो नगरी गीतों का संसार

हँसते-बसते हाए वो रस्ते नग़्मा-रेज़ दयार

वो गलियाँ वो फूल वो कलियाँ रंग-भरे बाज़ार

मैं ने उन गलियों फूलों कलियों से किया है प्यार

बर्ग-ए-आवारा में बिखरी है जिस की रूदाद

लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

कोई नहीं था काम मुझे फिर भी था कितना काम

उन गलियों में फिरते रहना दिन को करना शाम

घर घर मेरे शेर के चर्चे घर घर में बदनाम

रातों को दहलीज़ों पे ही कर लेना आराम

दुख सहने में चुप रहने में दिल था कितना शाद

लायल-पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

मैं ने उस नगरी रह कर क्या क्या गीत लिखे

जिन के कारन लोगों के मन में है मेरी प्रीत

एक लगन की बात है जीवन कैसी हार और जीत

सब से मुझ को प्यार है 'जालिब' सब हैं मेरे मीत

दाद तो उन की याद है मुझ को भूल गया बे-दाद

लायल पूर इक शहर है जिस में दिल है मिरा आबाद

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