दास्तान-ए-दिल-ए-दो-नीम

इक हसीं गाँव था कनार-ए-आब

कितना शादाब था दयार-ए-आब

क्या अजब बे-नियाज़ बस्ती थी

मुफ़्लिसी में भी एक मस्ती थी

कितने दिलदार थे हमारे दोस्त

वो बिचारे वो बे-सहारे दोस्त

अपना इक दायरा था धरती थी

ज़िंदगी चीन से गुज़रती थी

क़िस्सा जब यूसुफ़ ओ ज़ुलेख़ा का

मीठे मीठे सुरों में छिड़ता था

क़स्र शाहों के हिलने लगते थे

चाक सीनों के सिलने लगते थे

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