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तिरे माथे पे जब तक बल रहा है - हबीब जालिब कविता - Darsaal

तिरे माथे पे जब तक बल रहा है

तिरे माथे पे जब तक बल रहा है

उजाला आँख से ओझल रहा है

समाते क्या नज़र में चाँद तारे

तसव्वुर में तिरा आँचल रहा है

तिरी शान-ए-तग़ाफ़ुल को ख़बर क्या

कोई तेरे लिए बे-कल रहा है

शिकायत है ग़म-ए-दौराँ को मुझ से

कि दिल में क्यूँ तिरा ग़म पल रहा है

तअज्जुब है सितम की आँधियों में

चराग़-ए-दिल अभी तक जल रहा है

लहू रोएँगी मग़रिब की फ़ज़ाएँ

बड़ी तेज़ी से सूरज ढल रहा है

ज़माना थक गया 'जालिब' ही तन्हा

वफ़ा के रास्ते पर चल रहा है

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