शेर से शाइरी से डरते हैं

शेर से शाइरी से डरते हैं

कम-नज़र रौशनी से डरते हैं

लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी

हम तिरी दोस्ती से डरते हैं

दहर में आह-ए-बे-कसाँ के सिवा

और हम कब किसी से डरते हैं

हम को ग़ैरों से डर नहीं लगता

अपने अहबाब ही से डरते हैं

दावर-ए-हश्र बख़्श दे शायद

हाँ मगर मौलवी से डरते हैं

रूठता है तो रूठ जाए जहाँ

उन की हम बे-रुख़ी से डरते हैं

हर क़दम पर है मोहतसिब 'जालिब'

अब तो हम चाँदनी से डरते हैं

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