महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं
महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं
हम महव-ए-तमाशा-ए-सर-ए-राह-गुज़र हैं
हसरत सी बरसती है दर-ओ-बाम पे हर सू
रोती हुई गलियाँ हैं सिसकते हुए घर हैं
आए थे यहाँ जिन के तसव्वुर के सहारे
वो चाँद वो सूरज वो शब-ओ-रोज़ किधर हैं
सोए हो घनी ज़ुल्फ़ के साए में अभी तक
ऐ राह-रवाँ क्या यही अंदाज़-ए-सफ़र हैं
वो लोग क़दम जिन के लिए काहकशाँ ने
वो लोग भी ऐ हम-नफ़सो हम से बशर हैं
बिक जाएँ जो हर शख़्स के हाथों सर-ए-बाज़ार
हम यूसुफ़-ए-कनआँ' हैं न हम लाल-ओ-गुहर हैं
हम लोग मिलेंगे तो मोहब्बत से मिलेंगे
हम नुज़हत-ए-महताब हैं हम नूर-ए-सहर हैं
(1987) Peoples Rate This