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महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं - हबीब जालिब कविता - Darsaal

महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं

महताब-सिफ़त लोग यहाँ ख़ाक-बसर हैं

हम महव-ए-तमाशा-ए-सर-ए-राह-गुज़र हैं

हसरत सी बरसती है दर-ओ-बाम पे हर सू

रोती हुई गलियाँ हैं सिसकते हुए घर हैं

आए थे यहाँ जिन के तसव्वुर के सहारे

वो चाँद वो सूरज वो शब-ओ-रोज़ किधर हैं

सोए हो घनी ज़ुल्फ़ के साए में अभी तक

ऐ राह-रवाँ क्या यही अंदाज़-ए-सफ़र हैं

वो लोग क़दम जिन के लिए काहकशाँ ने

वो लोग भी ऐ हम-नफ़सो हम से बशर हैं

बिक जाएँ जो हर शख़्स के हाथों सर-ए-बाज़ार

हम यूसुफ़-ए-कनआँ' हैं न हम लाल-ओ-गुहर हैं

हम लोग मिलेंगे तो मोहब्बत से मिलेंगे

हम नुज़हत-ए-महताब हैं हम नूर-ए-सहर हैं

(1987) Peoples Rate This

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