कराहते हुए इंसान की सदा हम हैं

कराहते हुए इंसान की सदा हम हैं

मैं सोचता हूँ मिरी जान और क्या हम हैं

जो आज तक नहीं पहुँची ख़ुदा के कानों तक

सर-ए-दयार-ए-सितम आह-ए-ना-रसा हम हैं

तबाहियों को मुक़द्दर समझ के हैं ख़ामोश

हमारा ग़म न करो दर्द-ए-ला-दवा हम हैं

कहाँ निगह से गुज़रते हैं दुख भरे दिहात

हसीन शहरों के ही ग़म में मुब्तला हम हैं

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