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कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़ - हबीब जालिब कविता - Darsaal

कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़

कम पुराना बहुत नया था फ़िराक़

इक अजब रम्ज़-आशना था फ़िराक़

दूर वो कब हुआ निगाहों से

धड़कनों में बसा हुआ है फ़िराक़

शाम-ए-ग़म के सुलगते सहरा में

इक उमंडती हुई घटा था फ़िराक़

अम्न था प्यार था मोहब्बत था

रंग था नूर था नवा था फ़िराक़

फ़ासले नफ़रतों के मिट जाएँ

प्यार ही प्यार सोचता था फ़िराक़

हम से रंज-ओ-अलम के मारों को

किस मोहब्बत से देखता था फ़िराक़

इश्क़ इंसानियत से था उस को

हर तअ'स्सुब से मावरा था फ़िराक़

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