कभी तो मेहरबाँ हो कर बुला लें
कभी तो मेहरबाँ हो कर बुला लें
ये महवश हम फ़क़ीरों की दुआ लें
न जाने फिर ये रुत आए न आए
जवाँ फूलों की कुछ ख़ुश्बू चुरा लें
बहुत रोए ज़माने के लिए हम
ज़रा अपने लिए आँसू बहा लें
हम उन को भूलने वाले नहीं हैं
समझते हैं ग़म-ए-दौराँ की चालें
हमारी भी सँभल जाएगी हालत
वो पहले अपनी ज़ुल्फ़ें तो सँभालें
निकलने को है वो महताब घर से
सितारों से कहो नज़रें झुका लें
हम अपने रास्ते पर चल रहे हैं
जनाब-ए-शैख़ अपना रास्ता लें
ज़माना तो यूँही रूठा रहेगा
चलो 'जालिब' उन्हें चल कर मना लें
(1938) Peoples Rate This