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हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में - हबीब जालिब कविता - Darsaal

हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में

हर-गाम पर थे शम्स-ओ-क़मर उस दयार में

कितने हसीं थे शाम-ओ-सहर उस दयार में

वो बाग़ वो बहार वो दरिया वो सब्ज़ा-ज़ार

नश्शों से खेलती थी नज़र उस दयार में

आसान था सफ़र कि हर इक राहगुज़र पर

मिलते थे साया-दार शजर उस दयार में

हर-चंद थी वहाँ भी ख़िज़ाँ की उदास धूप

दिल पर नहीं था ग़म का असर उस दयार में

महसूस हो रहा था सितारे हैं गर्द-ए-राह

हम थे हज़ार ख़ाक-बसर उस दयार में

'जालिब' यहाँ तो बात गरेबाँ तक आ गई

रखते थे सिर्फ़ चाक-जिगर उस दयार में

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