यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ
जिस तरह से देता है कोई नौहागर आवाज़
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लिख कर मुक़त्तआ'त में दीं उन को अर्ज़ियाँ
जा सके न मस्जिद तक जम्अ' थे बहुत ज़ाहिद
मय-कदा है शैख़ साहब ये कोई मस्जिद नहीं
हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर
जब शाम हुई दिल घबराया लोग उठ के बराए सैर चले
बुतान-ए-सर्व-क़ामत की मोहब्बत में न फल पाया
है निगहबाँ रुख़ का ख़ाल-रू-ए-दोस्त
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
पिला साक़ी मय-ए-गुल-रंग फिर काली घटा आई
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
तालिब-ए-बोसा हूँ मैं क़ासिद वो हैं ख़्वाहान-ए-जान
दिल में भरी है ख़ाक में मिलने की आरज़ू