तीरा-बख़्ती की बला से यूँ निकलना चाहिए
जिस तरह सुलझा के ज़ुल्फ़ों को अलग शाना हुआ
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किसी की जुब्बा-साई से कभी घिसता नहीं पत्थर
जो ले लेते हो यूँ हर एक का दिल बातों बातों में
क्या हुआ वीराँ किया गर मोहतसिब ने मय-कदा
मय-कदे को जा के देख आऊँ ये हसरत दिल में है
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है
ग़ुर्बत बस अब तरीक़-ए-मोहब्बत को क़त्अ कर
शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था
उस से क्या छुप सके बनाई बात
है निगहबाँ रुख़ का ख़ाल-रू-ए-दोस्त
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत