तेरा कूचा है वो ऐ बुत कि हज़ारों ज़ाहिद
डाल के सुब्हा में याँ रिश्ता-ए-ज़ुन्नार चले
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तेज़ी-ए-बादा कुजा तल्ख़ी-ए-गुफ़्तार कुजा
शब कि मुतरिब था शराब-ए-नाब थी पैमाना था
दिल में भरी है ख़ाक में मिलने की आरज़ू
यूँ आती हैं अब मेरे तनफ़्फ़ुस की सदाएँ
है नौ-जवानी में ज़ोफ़-ए-पीरी बदन में रअशा कमर में ख़म है
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
लैस हो कर जो मिरा तर्क-ए-जफ़ा-कार चले
तालिब-ए-बोसा हूँ मैं क़ासिद वो हैं ख़्वाहान-ए-जान
भला हो जिस काम में किसी का तो उस में वक़्फ़ा न कीजिएगा
शब को नाला जो मिरा ता-ब-फ़लक जाता है
किसी सूरत से हुई कम न हमारी तशवीश
जब कि वहदत है बाइस-ए-कसरत