शम्अ का शाना-ए-इक़बाल है तौफ़ीक़-ए-करम
ग़ुंचा गुल होते ही ख़ुद साहब-ए-ज़र होता है
Anwar Masood
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Habib Jalib
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रोना इन का काम है हर दम जल जल कर मर जाना भी
वो यूँ शक्ल-ए-तर्ज़-ए-बयाँ खींचते हैं
रिंदों को वाज़ पंद न कर फ़स्ल-ए-गुल में शैख़
देख लो तुम ख़ू-ए-आतिश ऐ क़मर शीशे में है
मेहर-ओ-उल्फ़त से मआल-ए-तहज़ीब
कसी हैं भब्तियाँ मस्जिद में रीश-ए-वाइज़ पर
पिला साक़ी मय-ए-गुल-रंग फिर काली घटा आई
जबीन पर क्यूँ शिकन है ऐ जान मुँह है ग़ुस्से से लाल कैसा
अक़्ल पर पत्थर पड़े उल्फ़त में दीवाना हुआ
करो बातें हटाओ आइना बस बन चुके गेसू
सब में हूँ फिर किसी से सरोकार भी नहीं
हज़रत-ए-वाइज़ न ऐसा वक़्त हाथ आएगा फिर